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Writer's pictureBhuvan Sharma

उत्तराखंड में आपदा के आफ्टर इफैक्ट्स, चार नदियों ने अपना रास्ता ही बदल लिया, भू-वैज्ञानिक हैरान


 

दरअसल 17 अक्टूबर से विनाशकारी बारिश के बाद के हालातों पर उत्तरखांड वन विभाग ने विश्लेषण किया तो ये चौंकाने वाली बात सामने आई, चार नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है और ये अब कुछ जगहों पर लोगों की बस्तियों की ओर बहने लगी है जबकि कुछ इलाकों की ओर बहने से सीधे वन विभाग के खनन और पेट्रोलिंग जैसै कामों पर बुरा असर पड़ा है.

 

कुमाऊं की चार नदियों ने रास्ता बदला (फाइल फोटो)

हाल ही में मॉनसून के चले जाने के बाद भी उत्तराखंड में बारिश ने अपना कहर बरपाना जारी रखा, हालात यहां तक भयावह हो गए की बारिश ने बरसने का अपना बरसों पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया. जो कि प्रभावित इलाकों में रहते हैं या फिर किसी कारण से वहां फंस गए थे, उन हर एक के जहन में 2013 की आपदा की याद ताजा हो गई थी. इस बारिश ने खेत, मकान, दुकान, सड़कें, पुल, तालाब सब पर बुरा असर डाला. सबसे ज्यादा असर नदियों पर पड़ा, नदियों ने तो अपने रास्ते ही बदल दिए यानि सालों से जिन रास्तों से होकर नदियां अब तक गुजरती थीं उन रास्तों से नदियां अब डायवर्ट हो चुकी हैं. दरअसल 17 अक्टूबर से विनाशकारी बारिश के बाद के हालातों पर उत्तरखांड वन विभाग ने विश्लेषण किया तो ये चौंकाने वाली बात सामने आई, चार नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है और ये अब कुछ जगहों पर लोगों की बस्तियों की ओर बहने लगी है जबकि कुछ इलाकों की ओर बहने से सीधे वन विभाग के खनन और पेट्रोलिंग जैसै कामों पर बुरा असर पड़ा है.


इन चार नदियों ने बदला रास्ता

जिन चार नदियों ने अपना रास्ता बदला है, वो कुमाउं क्षेत्र की हैं, कोसी, गौला, नंधौर और डबका. नदियों का यूं रास्ता बदलना गंभीर चिंता की बात है और इसीलिए इस पर गहराई से अध्ययन के लिए वन विभाग आईआईटी रुड़की की मदद ले रहा है. इस अध्ययन में नदियों समेत वन मार्गों आदि को कितना नुकसान हुआ है इसका भी आंकलन किया जाएगा. टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए गए एक बयान में उत्तराखंड के वेस्टर्न सर्कल के मुख्य वन संरक्षक तेजस्विनी पाटिल ने कहा कि “नदियों के रास्ते में बदलाव हमारे लिए चिंता का विषय है। हमने आईआईटी-रुड़की को बदलावों का अध्ययन करने के लिए कहा है ताकि हम उचित तकनीकी आकलन के बाद नदी पर तटबंध बना सकें। पाटिल के मुताबिक, अपने सामान्य चैनलों के माध्यम से बहने के बजाय, बारिश पर आधारित नदियों का पानी अब अपनी पारंपरिक नदी के किनारे उन जगहों पर बह रहा है, जहां काफी हद तक अब अतिक्रमण कर लिया गया है.


नदी किनारे अतिक्रमण से बड़ी समस्या

वहीं पर्यावरणविदों का भी मानना है कि नदी किनारे अतिक्रमण ने समस्या को और बढ़ा दिया है. साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल (संदर्प) जो कि एक गैर लाभकारी संस्था है, इसके कोऑर्डिनेटर हिमांशू ठक्कर का कहना है कि, "नदियों ने अपना मार्ग नहीं बदला है या नए चैनल नहीं लिए हैं, वो बस अपने ही मूल स्थान पर बह रही हैं, वो मूल स्थान जहां जो नदी का किनारा है - जिस पर मनुष्यों ने कब्जा कर लिया है," हिमांशु ठक्कर ने कहा कि "अवैध निर्माण, कचरा डंपिंग और नदी में कचरा डंपिंग – जिसमें मानसून के दौरान या हर मौसम में चार धाम सड़क के निर्माण के दौरान भूस्खलन से आए मलबे को साफ करते समय - नदी के किनारे ही डाल दिया गया”. वहीं इस मामले में इतिहासकार और पद्म श्री से सम्मानित शेखर पाठक, बारिश से बड़े पैमाने पर तबाही के कारणों में मानवजनित दबाव और घोर अवैज्ञानिक तरीके से हो रहे निर्माण कार्यों को देखते हैं. उनका कहना है कि "नैनीताल से अल्मोड़ा तक की सड़क कोसी नदी के बाढ़ के मैदान पर अतिक्रमण करके बनाई गई थी और इस बाढ़ में हमने पूरी सड़क को बहते देखा है।" “पेड़ों की कटाई, पहाड़ों को काटकर इस तरह के अवैज्ञानिक निर्माण से उत्तराखंड को भारी नुकसान होगा।"


रवि चोपड़ा समीति की सिफारिशों को अनदेखा किया

चार धाम सड़क परियोजना का आकलन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों की जो समिति बनाई गई थी जिसका नाम रवि चोपड़ा समिति है, इस समीति ने उत्तराखंड के नदी तट में अति-निर्माण के इस मुद्दे को चिंताजनकर करार देकर सामने रखा था, फिर भी अधिकारियों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखना ठीक नहीं बताया था और इसको सिर्फ 5.5 मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी पर प्रकृति की चिंता किसे थी और वैसे भी इससे होने वाले नुकसान को उन पहाड़ों में रहने वाले लोग ही झेल रहे हैं.


पूर्वजों के तौर-तरीकों पर लौटना पड़ेगा

मौजूदा हालातों को मद्देनजर रखते हुए एक बार फिर से विशेषज्ञों ने नदी-नालों के किनारे के भूमि को चिह्निïत करने, यहां बसासत पर पूरी तरह पाबंदी लगाने की पैरवी की है। कहा है कि पहाड़ की परंपरागत पुराने तौर तरीके अनुसार नदी-नालों के किनारे खेती करने पर जोर दिया है। पहाड़ में बुजुर्गां ने नदी-नालों के किनारे खेती व तीर्थस्थल बनाए और बसासत ऊंचाई पर बनाई। उन्हें यह वैज्ञानिक तथ्य मालूम था कि नदी-नाले रास्ता बदलते हैं। वह नदी-नालों के व्यवहार को जानते थे। 2013 की आपदा में मंदाकिनी की बाढ़ से इसी वजह से नुकसान हुआ था, अबकी कुमाऊं में भी नुकसान की वजह नदी-नालों के किनारे बसासत व अतिक्रमण रहा है।

लंबे समय से नदियों का अध्ययन कर रहे कुमाऊं विवि भूगोल विभाग के प्रो पीसी तिवारी की मानें तो नदियों का क्रम स्ट्रीम ऑडरिंग या मार्ग बदलने वाला होता है। एक नदी दूसरे में मिलती है। मूल नदी के बहाव से भूस्खलन जबकि फिर पहली से आठवें तक यह क्रम चलता है, जिसमें खतरा बढ़ता है। उत्तराखंड की हिमानी व गैर हिमानी नदियां चौथे से आठवें क्रम तक हैं। कम पानी में घुमकर जबकि अधिक में सीधे चलती हैं। हमें परंपरागत रूप से प्रकृति को समझना होगा। नदी-नालों के किनारे दो सौ मीटर तक के दायरे में बसासत पर पाबंदी लगानी ही होगी।

साफ है कि फिलहाल बाढ़ और प्रकृति का तांडव थमा हुआ है लेकिन अब जिस अंतराल पर यह आपदाएं आने लगी है उन्हें देख भविष्य में इस तरह की आपदाओं से कम से कम नुकसान हो इसके लिए हमें अभी से ठोक कदम उठाने होंगे।

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